Thursday, April 29, 2021

कुँअर बेचैन : चैन और अमन के कवि

कुँअर बेचैन जी आज हमारे बीच नहीं रहे। अपनी कविता के माध्यम से इतने सरल  शब्दों में इतनी गहरी बात कह देने के फन में  उनका कोई सानी नहीं.छोटे बहर में ग़ज़ल कहने का उनका हुनर लाजवाब था  . वैसे तो   उनकी कई कविताएं दिल के बहुत करीब हैं मगर  सबसे पहली पक्तियां जो उनके निधन की खबर के साथ ही जेहन में आयीं, जो एक प्रश्न है या उत्तर ,  पता नहीं। 

बाहर के अँधेरे से, भीतर के उजाले तक,
मैं देह का पर्दा हूँ, मैं खुद को हटा लूं क्या

कुँअर जी  का बचपन बहुत कठिन था  ,सही मायनों  में बचपन तो था ही नहीं जैसे। मात्र  २ महीने की उम्र में पिता का साया सर से उठ गया और चार महीने की उम्र में घर में पड़ी डकैती में परिवार का सब  जमा लूट में जाता रहा।  ७ साल की उम्र में मां  चल बसी  और १४ साल की उम्र में बड़ी बहन, जिनके साथ वे रहते थे। इन  परिस्थितयों  को उनकी पक्तियों में समझा जा सकता है। 

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया
जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया
ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया

हर कवि  हर शायर  की एक हस्ताक्षर  शैली होती है।  उनकी शैली थी, जीवन के प्रति सकारत्मक नजरिया और संघर्ष करते रहने का आव्हान करने वाली पंक्तियाँ लिखना।  जितना मैंने उन्हें  पड़ा उनकी लगभग  हर ग़ज़ल  , हर  कविता में इस सकारत्मकता  को महसूस किया जा सकता है।  जब वो लिखते  है 

एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये
आपको ऊँचे जो उठना है तो आंसू की तरह
दिल से आँखों की तरफ हँस के उछलते रहिये

आधुनिक दौर में बिखेरते रिश्तों और घटती  संवेदनशीलता  के प्रति उनकी पीड़ा उनकी कई रचनाओं में दिखाई देती है। 

माँ की साँस , पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
संबंधों को पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।

या फिर उनकी ये कविता जिसका शीर्षक है'चेतना उपेक्षित है 'जो मेरे विचार में  नयी पीड़ी के पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए 

कैसी विडंबना है
जिस दिन ठिठुर रही थी
कुहरे-भरी नदी सी , 
माँ की उदास काया।
लानी थी गर्म चादर;
मैं मेज़पोश लाया।

कैसा नशा चढ़ा है
यह आज़ टाइयों पर
आँखे तरेरती हैं
अपनी सुराहियों पर
मन से ना बाँध पाई
रिश्तें गुलाब जैसे
ये राखियाँ बँधी हैं 
केवल कलाइयों पर

कैसी विडंबना है
जिस दिन मुझे पिता ने,
बैसाखियाँ हटाकर;
बेटा कहा, बुलाया।
मैं अर्थ ढूँढ़ने को 
तब शब्दकोश लाया।

तहज़ीब की दवा को 
जो रोग लग गया है
इंसान तक अभी तो
 दो-चार डग गया है
जाने किसे-किसे यह 
अब राख में बदल दे
जो बर्फ़ को नदी में 
चंदन सुलग गया है
कैसी विडंबना है
इस सभ्यता-शिखर पर
मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।
लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।

उनकी सभी रचनाओं में मैत्री और आपसी  भाईचारे का पैग़ाम  दिया गया है  जैसे  जब वो लिखते  हैं 

दिलों की सांखले और जहन की ये कुंडियां खोलो
भरी भारी घुटन है दिल की सारी खिड़कियां खोलो
कसी मुट्ठी को लेके आये हो , गुस्से में हो शायद
मिलाना है जो हमसे हाथ तो फिर ये मुठियाँ खोलो

हाई स्कूल प्रथम श्रेणी से पास करने वाले अपने स्कूल के वे एक मात्र छात्र थे बाद में विश्वविधालय  में हिंदी के प्राचार्य हुए और वहां भी छात्रों में बहुत लोकप्रिय  और प्रेरणा के स्त्रोत्र रहे।कर्म के प्रति निष्ठा  से लबरेज  उनकी इन  पंक्तियों पर  गौर कीजिए  

उसने मेरे छोटेपन की इस तरह इज्जत रखी
मैंने दीवारें उठाईं उसने उनपे छत रखी
क्यों हाथे की लकीरों से हैं आगे उँगलियाँ
रब ने भी किस्मत से आगे आपकी मेंहनत रखी


उनकी अनगिनत कवितायेँ है जो अंतर्मन को   छू जाती हैं मगर एक जो मुझे सबसे अधिक पसंद है और एक शिक्षक के तौर पे नयी पीड़ी को सन्देश देने के लिए जिसका उपयोग मैंने सबसे अधिक किया है वो है   'तू फूल की रस्सी न बुन'। ये एक  आव्हान  भी है और एक पैग़ाम भी 

आवाज़ को 
आवाज़ दे
ये मौन-व्रत 
अच्छा नहीं।
जलते हैं घर
जलते नगर
जलने लगे 
चिड़यों के पर,
तू ख्वाब में
डूबा रहा
तेरी नज़र 
 थी बेख़बर।
आँख़ों के ख़त पर नींद का
यह दस्तख़त  अच्छा नहीं।
जिस पेड़ को
खाते हैं घुन
उस पेड़ की  आवाज़ सुन,
उसके तले
बैठे हुए
तू फूल की  रस्सी न बुन।
जर्जर तनों  में रीढ का
यह अल्पमत  अच्छा नहीं।
है भाल यह
ऊँचा गगन
हैं स्वेदकन  नक्षत्र-गन,
दीपक जला
उस द्वार पर
जिस द्वार पर  है तम सघन।
अब स्वर्ण की  दहलीज़ पर
यह शिर विनत अच्छा नहीं

ये करोना - काल हमसे और क्या क्या छीनेगा  कोई नहीं  जानता।  ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को इस दुःख को सहन करने की शक्ति ,बस यही प्रार्थना है. उनके ये शब्द किसी भी व्यक्ति जिसने अदब की राह चुनी है हमेशा पथप्रर्दशक का कार्य करते रहेंगे।  

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।
कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।
मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।
कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।
अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।
तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।


1 comment:

  1. सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर,
    तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल.
    बस उसी दिन से ख़फ़ा है वो मेरा इक चेहरा,
    धूप में आईना इक रोज दिखाया था जिसे.
    कुँअर बहादुर सक्सेना जी ने देह जरूर छोड़ दी लेकिन वे हर सच्चे भारतीय की आत्मा में हमेशा हमेशा के लिए अपना स्थान बना गए। उनके दर्शन को जीना ही उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि होगी।

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