Monday, November 8, 2021

 किसी भी सभ्य और उन्नत समाज से जुड़ी  सबसे  मूलभूत भावना  है प्रेम और सबसे जरूरी आवश्यकता है सबके कल्याण में अपना कल्याण देख पाने की समझ ,जो प्रेम से ही आती है  । इतिहास गवाह है घोड़ा गाड़ी से जहां  हमारे राजाओं ने रथ बनवाये, वहीँ  वो समाज जिनकी प्रस्तावना में मानवीय कल्याण था उन्होंने उस पे ड्रम  या स्ट्रेचर रखकर पहली फायर ब्रिगेड और एम्बुलेंस बनाने की सोची ।

जहांगीर की बेटी बहार बानो बहुत बीमार थी सारे वैध -हकीम  हार चुके थे । डॉक्टर थॉमस रो  ने captain हॉकिन्स के अनुरोध पर उसका इलाज किया और वो ठीक हुई ,बदले में जहांगीर ने थॉमस रो को उसके वजन के बराबर सोना देने की पेशकश की मगर डॉक्टर रो ने कहा "जहाँपनाह ,मुझे सोना मत दीजीये मेरे देश को यहां व्यापार करने की अनुमति दे  दीजिये ।फिर जो हुआ वो बताने की जरूरत नहीं, बात ये है  राष्ट्र की भलाई में व्यक्ति की भलाई की जो भावना थॉमस रो में  सोलहवीं सदी में थी उसका लेश मात्र  आज भी हम में नहीं ।हममें से ज्यादातर धर्मों ,जातियों और वर्णों में बटें कबीलानुमा लोग हैं । फूट डालो राज करो की नीति आज भी जारी है और भक्ति का ये आलम है सब देखते बुझेते हुए भी हमने विकास और कल्याण की आशा, आस्था की डोरी से  इन दोयम दर्जे के नेताओं से बाँधी है जिनका काम है बांटना और राज करना ।

जिस समाज में व्यक्ति के हितों का राष्ट्र हित से सामन्जस्य नहीं और जहां प्रेम भाव की जगह नफरतों के बीज बोए जाते हो ऐसे समाज को अभी बहुत कुछ और झेलना होगा ये जानने से पहले की नफरतों के ज्वालामुखी पे कल्याण और विकास के फूल नहीं खिलते।

Thursday, April 29, 2021

कुँअर बेचैन : चैन और अमन के कवि

कुँअर बेचैन जी आज हमारे बीच नहीं रहे। अपनी कविता के माध्यम से इतने सरल  शब्दों में इतनी गहरी बात कह देने के फन में  उनका कोई सानी नहीं.छोटे बहर में ग़ज़ल कहने का उनका हुनर लाजवाब था  . वैसे तो   उनकी कई कविताएं दिल के बहुत करीब हैं मगर  सबसे पहली पक्तियां जो उनके निधन की खबर के साथ ही जेहन में आयीं, जो एक प्रश्न है या उत्तर ,  पता नहीं। 

बाहर के अँधेरे से, भीतर के उजाले तक,
मैं देह का पर्दा हूँ, मैं खुद को हटा लूं क्या

कुँअर जी  का बचपन बहुत कठिन था  ,सही मायनों  में बचपन तो था ही नहीं जैसे। मात्र  २ महीने की उम्र में पिता का साया सर से उठ गया और चार महीने की उम्र में घर में पड़ी डकैती में परिवार का सब  जमा लूट में जाता रहा।  ७ साल की उम्र में मां  चल बसी  और १४ साल की उम्र में बड़ी बहन, जिनके साथ वे रहते थे। इन  परिस्थितयों  को उनकी पक्तियों में समझा जा सकता है। 

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया
जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया
ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया

हर कवि  हर शायर  की एक हस्ताक्षर  शैली होती है।  उनकी शैली थी, जीवन के प्रति सकारत्मक नजरिया और संघर्ष करते रहने का आव्हान करने वाली पंक्तियाँ लिखना।  जितना मैंने उन्हें  पड़ा उनकी लगभग  हर ग़ज़ल  , हर  कविता में इस सकारत्मकता  को महसूस किया जा सकता है।  जब वो लिखते  है 

एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये
आपको ऊँचे जो उठना है तो आंसू की तरह
दिल से आँखों की तरफ हँस के उछलते रहिये

आधुनिक दौर में बिखेरते रिश्तों और घटती  संवेदनशीलता  के प्रति उनकी पीड़ा उनकी कई रचनाओं में दिखाई देती है। 

माँ की साँस , पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
संबंधों को पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।

या फिर उनकी ये कविता जिसका शीर्षक है'चेतना उपेक्षित है 'जो मेरे विचार में  नयी पीड़ी के पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए 

कैसी विडंबना है
जिस दिन ठिठुर रही थी
कुहरे-भरी नदी सी , 
माँ की उदास काया।
लानी थी गर्म चादर;
मैं मेज़पोश लाया।

कैसा नशा चढ़ा है
यह आज़ टाइयों पर
आँखे तरेरती हैं
अपनी सुराहियों पर
मन से ना बाँध पाई
रिश्तें गुलाब जैसे
ये राखियाँ बँधी हैं 
केवल कलाइयों पर

कैसी विडंबना है
जिस दिन मुझे पिता ने,
बैसाखियाँ हटाकर;
बेटा कहा, बुलाया।
मैं अर्थ ढूँढ़ने को 
तब शब्दकोश लाया।

तहज़ीब की दवा को 
जो रोग लग गया है
इंसान तक अभी तो
 दो-चार डग गया है
जाने किसे-किसे यह 
अब राख में बदल दे
जो बर्फ़ को नदी में 
चंदन सुलग गया है
कैसी विडंबना है
इस सभ्यता-शिखर पर
मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।
लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।

उनकी सभी रचनाओं में मैत्री और आपसी  भाईचारे का पैग़ाम  दिया गया है  जैसे  जब वो लिखते  हैं 

दिलों की सांखले और जहन की ये कुंडियां खोलो
भरी भारी घुटन है दिल की सारी खिड़कियां खोलो
कसी मुट्ठी को लेके आये हो , गुस्से में हो शायद
मिलाना है जो हमसे हाथ तो फिर ये मुठियाँ खोलो

हाई स्कूल प्रथम श्रेणी से पास करने वाले अपने स्कूल के वे एक मात्र छात्र थे बाद में विश्वविधालय  में हिंदी के प्राचार्य हुए और वहां भी छात्रों में बहुत लोकप्रिय  और प्रेरणा के स्त्रोत्र रहे।कर्म के प्रति निष्ठा  से लबरेज  उनकी इन  पंक्तियों पर  गौर कीजिए  

उसने मेरे छोटेपन की इस तरह इज्जत रखी
मैंने दीवारें उठाईं उसने उनपे छत रखी
क्यों हाथे की लकीरों से हैं आगे उँगलियाँ
रब ने भी किस्मत से आगे आपकी मेंहनत रखी


उनकी अनगिनत कवितायेँ है जो अंतर्मन को   छू जाती हैं मगर एक जो मुझे सबसे अधिक पसंद है और एक शिक्षक के तौर पे नयी पीड़ी को सन्देश देने के लिए जिसका उपयोग मैंने सबसे अधिक किया है वो है   'तू फूल की रस्सी न बुन'। ये एक  आव्हान  भी है और एक पैग़ाम भी 

आवाज़ को 
आवाज़ दे
ये मौन-व्रत 
अच्छा नहीं।
जलते हैं घर
जलते नगर
जलने लगे 
चिड़यों के पर,
तू ख्वाब में
डूबा रहा
तेरी नज़र 
 थी बेख़बर।
आँख़ों के ख़त पर नींद का
यह दस्तख़त  अच्छा नहीं।
जिस पेड़ को
खाते हैं घुन
उस पेड़ की  आवाज़ सुन,
उसके तले
बैठे हुए
तू फूल की  रस्सी न बुन।
जर्जर तनों  में रीढ का
यह अल्पमत  अच्छा नहीं।
है भाल यह
ऊँचा गगन
हैं स्वेदकन  नक्षत्र-गन,
दीपक जला
उस द्वार पर
जिस द्वार पर  है तम सघन।
अब स्वर्ण की  दहलीज़ पर
यह शिर विनत अच्छा नहीं

ये करोना - काल हमसे और क्या क्या छीनेगा  कोई नहीं  जानता।  ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को इस दुःख को सहन करने की शक्ति ,बस यही प्रार्थना है. उनके ये शब्द किसी भी व्यक्ति जिसने अदब की राह चुनी है हमेशा पथप्रर्दशक का कार्य करते रहेंगे।  

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।
कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।
मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।
कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।
अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।
तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।


Tuesday, January 20, 2015

" हिंदी में अन्य भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग का प्रचलन हिंदी के लिए आशीर्वाद है या अभिशाप है " ?


भाषा, व्यक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम है, जिसके तार, सीधे उसकी हृदय की संवेदना से जुड़े हैं। इस से पहले कि हम मूल प्रश्न  का उत्तर निर्धारित करने की चेष्टा करें , हमें इस से जुड़े कुछ आधारभूत पक्षों  की विवेचना कर लेनी चाहिए । 
भाषा क्या है ? भाषा की आवश्यकता क्यों है ? बोलियों से विभाषा और विभाषाओं से भाषाएँ किस तरह विकसित होती हैं ? क्यों कुछ भाषाएँ समय के साथ प्रचलित रहती हैं और क्यों कुछ अप्रासंगिक और विलुप्त होकर सिर्फ ऐतिहासिक महत्त्व की रह जाती हैं ? 
भाषा वह साधन है जिसके द्वारा किसी समूह या क्षेत्र के लोग अपने मन की बात तथा विचार व्यक्त करते है और इसके लिये वे न सिर्फ नाद ध्वनियों का बल्कि ऐच्छिक संकेतो का भी उपयोग करते है, जिनका किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध आवश्यक नहीं होता । भाषा सिर्फ ध्वनि प्रकृति न रखकर भाव प्रकर्ति  भी रखती है जो शब्द निर्माण और व्याकरण में मुखरित होती है। भाषा कोई ईश्वरीय देन नहीं बल्कि इसे मनुष्य ने  अपनी बुद्धि से, अभिव्यक्ति के सुगम तरीके के लिए विकसित किया है जो मनुष्य की प्रगर्ति  में सहायक रही है। हमारी हिंदी , भाषाविज्ञान की द्रष्टि  से भाषाओं के आर्य वर्ग की उपशाखा भारत-ईरानी समूह से है ,जो मूलतः  संस्कृत की वंशजा मानी गयी है और मध्यकालीन आर्यभाषाओं के अलावा द्रविड़, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली, तथा अंग्रेज़ी भाषाओं के वैविध्य से समृद्ध और व्यापक हुई है। 
मूल विषय पर आयें  , तो हम  खुद को दो पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं के वर्गों के बीच खड़ा नज़र पाते हैं। पहला वर्ग वो, जिसे अग्रेजी या फ्रेंच शब्द के  गलत उच्चारण करने का पता चलने पर तो शर्म का अनुभव होता है, मगर हिंदी के अज्ञान को वह सिर्फ "व्हाटएवर " के साथ कंधे उचकाकर झटक देता है।  गोया , सदियों की गुलामी के बाद "कोलोनियलिस्म " की जो काई अंतर्मन पर जमी है , उसे हटाने के कोई  वैध्य कारण उन्हें नजर नहीं आते। दूसरा वर्ग वो है जो मौलिकता  बनाये रखने के नाम पर हवाई अड्डे को , विमान उत्तनपटन स्थल और ट्रेन को लौहपथगामिनी  कहे जाने की जिद में है। विडम्बना ये भी है कि जो लोग आज हिंदी की शुद्धता बनाये रखने की गुहार लगाते हैं , उनमे से ही कई अपने बच्चों को ऐसे  विद्यालयों  में प्रवेश दिलवाने के लिए लगी कतारों में नज़र आते हैं , जहाँ हिंदी बोलने पर ही  दंड है । 
जिस समाज में हम रहते हैं उसकी भाषा का असर ,साहित्य पर ,फिल्मों पर ,गीत संगीत पर आना स्वाभाविक है क्योंकि रचनाकार भी उसी समाज का हिस्सा है जिसे वो सम्बोन्धित करना चाहता है ।  दूसरी भाषा से प्रचलित शब्द जो वैसे भी हमारी आम ज़िन्दगी में जगह बना चुके हैं व  जिनसे व्याकरण , कर्ता ,  कारक और क्रिया  का क्रम  प्रभावित न होता हो, जोड़ने में हर्ज़ क्या है ? मेरे विचार में, अगर हिंदी के प्रसार में सच में किसी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो वह है हिंदी गीत- संगीत। गौर कीजिए  , आकाशवाणी पर जब तक सिर्फ शास्त्रीय और सुगम संगीत बजता रहा तब तक उसे लोकप्रियता नहीं मिली। पंडित नरेंद्र शर्मा ने जब सरकारी फीताशाहों को ये समझाया  की कोई भी संगीत अछूत नहीं और  जनता से जुड़ने के लिए उसकी मांग समझना जरुरी है।  तब कहीं  फ़िल्मी गीत रेडियो पर विविध भारती से बजना शुरू हुए , और उन गीतों ने कैसे भारत को उत्तर से दक्षिण तक जोड़ा इस तथ्य को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं। ये सोच का विषय है कि साहित्य ऐसा क्यों नहीं कर पाया, क्योंकि शायद ये अपने आप को भाषाई  जंजीरों की लम्बाई से आगे नहीं बढ़ा पाया। कैसे कहा जा रहा है , इस से ज्यादा आवश्यक है जानना  कि जो कहा  जा रहा है क्या वो रोचक और उपयोगी   है ? क्या कोई , उसे सुन और समझ भी रहा है  या स्थिति बस खुद दिल से दिल की  बात कहकर,  रोने जैसी है ? 
कुछ जोड़ने से कुछ घटता नहीं , आज अंग्रेजी में विज्ञानं और साहित्य का अपूर भंडार उपलब्ध  है , अंग्रेजी ने सब से लिया है- लैटिन से, ग्रीक से , उन्हें किसी भी भाषा के प्रचलित शब्द जोड़ने में कोई परहेज नहीं रहा। उन्होंने हमसे 'कच्चा' भी लिया और 'पंडित' भी और तमिल से 'केटामरीन' भी। अगर हम अपनी ऊर्जा को , अपनी भाषा को व्यापक और प्रचुर बनाने की जगह, सिर्फ उसकी महानता का गुणगान करने में और उसे व्यहारिकता के धूप  के बिना बस संस्कारों के पानी से सींचेंगे तो मेरा मानना है की हम हिंदी को  विकास-पथ पर  नहीं अपितु  संस्कृत की तरह विलुप्त होने की राह पर ले जा रहे हैं। 
जीवन का पर्याय गति है और यह श्लोक "जीवने केवलं परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति" जो जीवन व उस से जुडी गतिशीलता का घोतक  है ,  हमें समझाता है कि केवल परिवतर्न ही चिर स्थायी है । संसार की सभी बातों की भाँति भाषा  भी  मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से ,खड़ी  बोली और फिर आज की मिर्श्रित भाषा  तक बदलती रही है ।  मेरा मानना है की मुद्दा आज भाषा का नहीं , मूल मौलिक विचार का है, भाषा तो सिर्फ माध्यम है, प्रकर्ति की तरह सक्षम और फैलाव लिए , बकौल शायरा परवीन शाकिर 
वो तो खुश्बू  है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला तो फूल का है, फूल किधर जायेगा
मेरे विचार में , जरुरत है हिंदी को सिंहासन से उतारकर आम आदमी के बीच लाने की। अंततः कोई बुराई नहीं उन शब्दों को  जोड़ने में जो व्यवहारिकता  में हमारे जीवन से वैसे भी हमसे जुड़ चुके हैं।  अगर हमें सचमुच हमारी भाषा को समृद्ध बनाने की मुहिम शुरू करनी है तो यह इसमें मौलिक सृजन  को बढ़ावा देकर , पुस्तकालयों  में उच्च कोटि का हिंदी साहित्य लाकर ,हिंदी में लिखने के सॉफ्टवेयर को प्रचलित कर के किया जाना होगा। साहित्यकार थॉमस मान  कहते हैं  "हर शब्द, चाहे वो कितने भी विरोध में  क्यों न कहा गया हो, जोड़ता है , ये तो ख़ामोशी है, जो दूरियां बढ़ाती है। हमें हमारी इस सुन्दर भाषा की उच्छल तरंगो  को समाज के समुद्र में फैलने देना होगा , इसे अपने ही शब्दों के किनारों में बांधने  की कोशिश ही एक अभिशाप होगी।

Friday, November 14, 2014

धूसर चेहरे और व्यवस्थाओं के मैले दर्पण

किसी भी व्यक्ति या विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पण, स्वतंत्र सोच पर दीमक का कार्य करता है। इन संकुचित पैमानों से नापकर न तो सत्य की खोज की जा सकती है और न ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित बुद्धि से कोई मौलिक सृजन संभव है। असहिष्णुता , तर्कविहीन बहसों और अंधी आस्था का जो मौहाल आज चारों तरफ फैला है, उसे देखकर दुष्यंत की ये पंक्तियाँ बार बार याद आती हैं।
पाबंद हो रही है रवायत* से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब
रौशन हुए चराग़ तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रोशनी का गुमाँ और भी ख़राब
* परम्परा ,रिवाज़

जरा सोचिये , अगर किसी महान जनतंत्र के प्रधानमंत्री को जनता से अपने घर, गली- मोहल्ले और शहर को स्वच्छ रखने का आव्हान करना पड़े , तो ये उस देश के महान देशवासिओं के लिए गर्व का विषय होना चाहिए या शर्म का? यक़ीनन , इसका जवाब खोजने  के लिए एक रॉकेट विज्ञानी सी बुद्धि होना आवश्यक नहीं।

अब तक , घर में सफाई करते वक़्त पंखा बंद रखने की हिदायत दी जाती थी जिससे कचरा न उड़े , मगर इन दिंनो सफाई का स्वांग रचते कुछ महान नेता कैमरा चालू करने की मांग करते हैं ,गोया , उनकी नीयत की तरह गर्द चाहे साफ न हो , सफाई होने की खबर दूर तक उड़े। ऐसे विदूषकों को उनके राजनैतिक दल के प्रमुख कैसे झेलते होंगे और ऐसे रीड़ -विहीन ,तर्क विहीन, दोयम दर्ज़े के बहुरुपियों को हम कैसे हमारा प्रतिनिधि चुन लेते हैं, ये एक शोध और सोच का विषय हो सकता है।

हम ऐसे क्यों है ? जानने की चेष्टा न कर मान लेने तत्परता हमारी फितरत क्यों है ? आदर्शवादी सिद्धातों के देवदार वृक्ष बनने की जगह , हम व्यहारिकता की लचीली बेलें बनना कैसे गवारा कर लेते हैं ? मंच से संवाद की जगह नेपथ्य से जुगाड़ हमारी प्राथमिकता क्यों है ? हम राष्ट्र वाद को कभी हिंदुत्व तो कभी इस्लाम से कैसे जोड़ लेते हैं? मुद्दों से ज्यादा हमारी रूचि व्यक्तियों में क्यों रहती है ? एक जनतत्र में हम किसी पार्टी की सोच या विचारधारा की जगह उसके एक नेता को सर्वोपरि कैसे मान लेते हैं ? अपनी मेहनत से नव निर्माण की नीव रखने की जगह हमें किसी जादुई शक्ति का इंतज़ार क्यों है ? 

शायद इन सब सवालों के जवाब हमारी परवरिश , शिक्षा और अवधारणों से जुड़े हैं। बचपन में विधालय की प्रार्थना  से शुरू करें तो वो सिखाती है " शरण में आये हैं हम तुम्हारी , दया करो हे दयालु भगवन" , घरों में बचपन से दादी नानी को कहते सुना होगा ,सब अच्छा- बुरा बस उसके हाथ में है, हम तो बस कठपुतलियां है , जिनकी डोर पकडे वह हमें नचा रहा है। हम इसी सोच के साथ बड़े होते की हम अज्ञानी मूर्ख हैं और कोई सर्वज्ञानी जादुई परमेश्वर ही हमारा पालन हारा है, जिसकी दया अनुकम्पा से ही हमारा गुज़र है। हमारे परिवेश में ईश्वर की परिकल्पना किसी शक्ति पुंज सी नहीं बल्कि किसी अभिमानी शासक या किसी मोहल्ले के दादा जैसी है , जो उसके एजेंट नुमा स्वघोषित पैगम्बरों की बात न मानने पर हमें देख लेगा। 

हमारी प्रार्थनाएं  तक चापलूसी से भरी हैं , किसी ईश्वरीय शक्ति से कर्म करते रहने के हौसले की मांग करने की जगह यहाँ भी हम किसी घमंडी राजा को चापलूसी  के द्वारा खुश करने की चेष्टा  में नजर आते हैं।  एहसासे - कमतरी के ये बीज जो बालक के अवचेतन की कच्ची जमीं पर बोये जाते हैं, आगे चल पलायन वाद के पौधे में बदलते है ,जिनकी शाखों पर बेईमानी, रिश्वतखोरी के बेरंग फूल खिलते हैं और जिनकी छिछली छाया में भाई भतीजावाद पनपता है। 

मेरे विचार में प्रार्थना , एकाग्रता के साथ अपनी वैचारिक शक्ति को केंद्रित करने का जरिया है , किसी आलोकिक शक्ति से चापलूसी कर,  कोई सिफारिशी अर्ज़ी लिखवा लेने का जुगाड़ नहीं. किसी भी तरह की सफलता के लिए अथक श्रम आवश्यक है।   एक छोटा सा किस्सा है। एक बार दो बहनों को दुसरे नगर जाना था मगर उन्हें घर से निकलने में देर हो गयी। छोटी ने कहा " दीदी , अब कोई संभावना नहीं, मंदिर में रुक कर प्रार्थना  करते हैं कि , आज गाड़ी लेट हो जाये। दूसरी ने कहा " तेज़ी से दौड़ कर स्टेशन पहुचने की कोशिश करते हैं और दौड़ते हुए प्रार्थना  भी करते हैं के आज गाड़ी लेट हो" .  कर्म के बिना कुछ सकारात्मक  संभव ही  नहीं , इसी संदर्भ में निदा फ़ाज़ली की खूबसूरत पंक्तियाँ है। 
कोशिश भी कर, उम्मीद भी रख, रास्ता भी चुन
फिर उसके बाद , थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर.
विडंबना है कि , कर्म की तपिश से कुंदन बनने की चेष्टा छोड़ हमने लोहा बने रह किसी पारस का इंतज़ार किया है।  बड़ी चतुराई और धूर्तता से मानवों का अवतारीकरण किया है पर  मनुष्य को पत्थर से अधिक कुछ नहीं समझा। 

क्या नीतियों में एक बड़े आधारभूत परिवर्त्तन के बिना कोई बड़ा सामाजिक बदलाव मुमकिन है ? आर्थिक और सामाजिक समानता असंभव लक्ष्य है मगर ऐसा तंत्र तो यक़ीनन संभव है जो सभी को समान  अवसर प्रदान करे। सोचना होगा हम सबको ,  क्या इसी स्वराज के लिए, जो एक प्रकार की तानाशाही से अधिक कुछ नहीं, हमारे शहीदों ने अपने प्राण दिए थे ? विडम्बना यह है की यह तानाशाही भी सर्वसुविधा-संपन्न वर्ग के द्वारा प्रायोजित है , जिसकी सेवा में हर सरकार व व्यवस्था हमेशा तत्पर रहती हैं। अधिकांश जनता नें अपनी आस्था आज एक चमत्कारी खूँटी पर टांगी है और माहौले - अकीदत में पीछे की दीवार की मजबूती की हकीकत का जायजा लेने को कोई तैयार नहीं।   

दरअसल, जब व्वयस्था के आइनों पे मैल जमी हो तो आम नागरिक को  अपनी धूसरित  छवि  के लिए  सिस्टम को दोष देने के जायज बहाने मिल जाते हैं, इसलिए चेहरों की धूल हटाने के साथ दर्पणों की सफाई भी जरुरी है। देश की कालीन से भ्रष्टाचार की गर्द आमूल झाड़ देने का दावा करने वालों को पहले अपने कीचड़ सने पाँव धोने होगें। जादुई छड़ी लिए कोई अवतार हमें किसी गन्दगी से निजात दिलाकर स्वछ नहीं बना सकता , सही मायनो में सफाई के लिए  शुद्ध आचरण से हमें ही  अपने चरित्र  बुहारने होंगे।  इस तंत्र को जंग  हमारी चुप्पी ने लगाया है और हमारी आवाज़ और संघर्ष ही इस से मुक्ति का साधन हैं , दुष्यंत के शब्दों से प्रेरणा लेकर बस यही आवाहन  किया जा सकता है।  
पुराने पड़ गये इन डरों को , फेंक दो तुम भी ,
ये कचरा आज मन से बाहर, फेंक दो तुम भी
ये मूरत बोल सकती है , तुम अगर चाहो
कुछ बोल, कुछ स्वर, इन में फेंक दो तुम भी
किसी संवेदना के काम आएँगे
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी .....