Friday, November 14, 2014

धूसर चेहरे और व्यवस्थाओं के मैले दर्पण

किसी भी व्यक्ति या विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पण, स्वतंत्र सोच पर दीमक का कार्य करता है। इन संकुचित पैमानों से नापकर न तो सत्य की खोज की जा सकती है और न ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित बुद्धि से कोई मौलिक सृजन संभव है। असहिष्णुता , तर्कविहीन बहसों और अंधी आस्था का जो मौहाल आज चारों तरफ फैला है, उसे देखकर दुष्यंत की ये पंक्तियाँ बार बार याद आती हैं।
पाबंद हो रही है रवायत* से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब
रौशन हुए चराग़ तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रोशनी का गुमाँ और भी ख़राब
* परम्परा ,रिवाज़

जरा सोचिये , अगर किसी महान जनतंत्र के प्रधानमंत्री को जनता से अपने घर, गली- मोहल्ले और शहर को स्वच्छ रखने का आव्हान करना पड़े , तो ये उस देश के महान देशवासिओं के लिए गर्व का विषय होना चाहिए या शर्म का? यक़ीनन , इसका जवाब खोजने  के लिए एक रॉकेट विज्ञानी सी बुद्धि होना आवश्यक नहीं।

अब तक , घर में सफाई करते वक़्त पंखा बंद रखने की हिदायत दी जाती थी जिससे कचरा न उड़े , मगर इन दिंनो सफाई का स्वांग रचते कुछ महान नेता कैमरा चालू करने की मांग करते हैं ,गोया , उनकी नीयत की तरह गर्द चाहे साफ न हो , सफाई होने की खबर दूर तक उड़े। ऐसे विदूषकों को उनके राजनैतिक दल के प्रमुख कैसे झेलते होंगे और ऐसे रीड़ -विहीन ,तर्क विहीन, दोयम दर्ज़े के बहुरुपियों को हम कैसे हमारा प्रतिनिधि चुन लेते हैं, ये एक शोध और सोच का विषय हो सकता है।

हम ऐसे क्यों है ? जानने की चेष्टा न कर मान लेने तत्परता हमारी फितरत क्यों है ? आदर्शवादी सिद्धातों के देवदार वृक्ष बनने की जगह , हम व्यहारिकता की लचीली बेलें बनना कैसे गवारा कर लेते हैं ? मंच से संवाद की जगह नेपथ्य से जुगाड़ हमारी प्राथमिकता क्यों है ? हम राष्ट्र वाद को कभी हिंदुत्व तो कभी इस्लाम से कैसे जोड़ लेते हैं? मुद्दों से ज्यादा हमारी रूचि व्यक्तियों में क्यों रहती है ? एक जनतत्र में हम किसी पार्टी की सोच या विचारधारा की जगह उसके एक नेता को सर्वोपरि कैसे मान लेते हैं ? अपनी मेहनत से नव निर्माण की नीव रखने की जगह हमें किसी जादुई शक्ति का इंतज़ार क्यों है ? 

शायद इन सब सवालों के जवाब हमारी परवरिश , शिक्षा और अवधारणों से जुड़े हैं। बचपन में विधालय की प्रार्थना  से शुरू करें तो वो सिखाती है " शरण में आये हैं हम तुम्हारी , दया करो हे दयालु भगवन" , घरों में बचपन से दादी नानी को कहते सुना होगा ,सब अच्छा- बुरा बस उसके हाथ में है, हम तो बस कठपुतलियां है , जिनकी डोर पकडे वह हमें नचा रहा है। हम इसी सोच के साथ बड़े होते की हम अज्ञानी मूर्ख हैं और कोई सर्वज्ञानी जादुई परमेश्वर ही हमारा पालन हारा है, जिसकी दया अनुकम्पा से ही हमारा गुज़र है। हमारे परिवेश में ईश्वर की परिकल्पना किसी शक्ति पुंज सी नहीं बल्कि किसी अभिमानी शासक या किसी मोहल्ले के दादा जैसी है , जो उसके एजेंट नुमा स्वघोषित पैगम्बरों की बात न मानने पर हमें देख लेगा। 

हमारी प्रार्थनाएं  तक चापलूसी से भरी हैं , किसी ईश्वरीय शक्ति से कर्म करते रहने के हौसले की मांग करने की जगह यहाँ भी हम किसी घमंडी राजा को चापलूसी  के द्वारा खुश करने की चेष्टा  में नजर आते हैं।  एहसासे - कमतरी के ये बीज जो बालक के अवचेतन की कच्ची जमीं पर बोये जाते हैं, आगे चल पलायन वाद के पौधे में बदलते है ,जिनकी शाखों पर बेईमानी, रिश्वतखोरी के बेरंग फूल खिलते हैं और जिनकी छिछली छाया में भाई भतीजावाद पनपता है। 

मेरे विचार में प्रार्थना , एकाग्रता के साथ अपनी वैचारिक शक्ति को केंद्रित करने का जरिया है , किसी आलोकिक शक्ति से चापलूसी कर,  कोई सिफारिशी अर्ज़ी लिखवा लेने का जुगाड़ नहीं. किसी भी तरह की सफलता के लिए अथक श्रम आवश्यक है।   एक छोटा सा किस्सा है। एक बार दो बहनों को दुसरे नगर जाना था मगर उन्हें घर से निकलने में देर हो गयी। छोटी ने कहा " दीदी , अब कोई संभावना नहीं, मंदिर में रुक कर प्रार्थना  करते हैं कि , आज गाड़ी लेट हो जाये। दूसरी ने कहा " तेज़ी से दौड़ कर स्टेशन पहुचने की कोशिश करते हैं और दौड़ते हुए प्रार्थना  भी करते हैं के आज गाड़ी लेट हो" .  कर्म के बिना कुछ सकारात्मक  संभव ही  नहीं , इसी संदर्भ में निदा फ़ाज़ली की खूबसूरत पंक्तियाँ है। 
कोशिश भी कर, उम्मीद भी रख, रास्ता भी चुन
फिर उसके बाद , थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर.
विडंबना है कि , कर्म की तपिश से कुंदन बनने की चेष्टा छोड़ हमने लोहा बने रह किसी पारस का इंतज़ार किया है।  बड़ी चतुराई और धूर्तता से मानवों का अवतारीकरण किया है पर  मनुष्य को पत्थर से अधिक कुछ नहीं समझा। 

क्या नीतियों में एक बड़े आधारभूत परिवर्त्तन के बिना कोई बड़ा सामाजिक बदलाव मुमकिन है ? आर्थिक और सामाजिक समानता असंभव लक्ष्य है मगर ऐसा तंत्र तो यक़ीनन संभव है जो सभी को समान  अवसर प्रदान करे। सोचना होगा हम सबको ,  क्या इसी स्वराज के लिए, जो एक प्रकार की तानाशाही से अधिक कुछ नहीं, हमारे शहीदों ने अपने प्राण दिए थे ? विडम्बना यह है की यह तानाशाही भी सर्वसुविधा-संपन्न वर्ग के द्वारा प्रायोजित है , जिसकी सेवा में हर सरकार व व्यवस्था हमेशा तत्पर रहती हैं। अधिकांश जनता नें अपनी आस्था आज एक चमत्कारी खूँटी पर टांगी है और माहौले - अकीदत में पीछे की दीवार की मजबूती की हकीकत का जायजा लेने को कोई तैयार नहीं।   

दरअसल, जब व्वयस्था के आइनों पे मैल जमी हो तो आम नागरिक को  अपनी धूसरित  छवि  के लिए  सिस्टम को दोष देने के जायज बहाने मिल जाते हैं, इसलिए चेहरों की धूल हटाने के साथ दर्पणों की सफाई भी जरुरी है। देश की कालीन से भ्रष्टाचार की गर्द आमूल झाड़ देने का दावा करने वालों को पहले अपने कीचड़ सने पाँव धोने होगें। जादुई छड़ी लिए कोई अवतार हमें किसी गन्दगी से निजात दिलाकर स्वछ नहीं बना सकता , सही मायनो में सफाई के लिए  शुद्ध आचरण से हमें ही  अपने चरित्र  बुहारने होंगे।  इस तंत्र को जंग  हमारी चुप्पी ने लगाया है और हमारी आवाज़ और संघर्ष ही इस से मुक्ति का साधन हैं , दुष्यंत के शब्दों से प्रेरणा लेकर बस यही आवाहन  किया जा सकता है।  
पुराने पड़ गये इन डरों को , फेंक दो तुम भी ,
ये कचरा आज मन से बाहर, फेंक दो तुम भी
ये मूरत बोल सकती है , तुम अगर चाहो
कुछ बोल, कुछ स्वर, इन में फेंक दो तुम भी
किसी संवेदना के काम आएँगे
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी ..... 

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