कल हम समाचार पत्रों में पढ़ेंगे , कि आज हिंदी दिवस की रस्म पर कहाँ , कितने समरोह आयोजित किये गए। किन मंत्रियों ने कहाँ दीप जलाये और हिंदी के का विकास का बीज बोकर उसे सींचने का जिम्मा किस तरह , अगले साल तक हमें देकर देश को अनुग्रहित किया।विद्यालयों में निबन्ध प्रतियोगिताएँ होगी, जहाँ हिंदी की गरिमा पर प्रकाश डाला जायेगा। शायद ६७ साल बाद चारों और फैली अंग्रेजियत की आलोचना भी हो , मगर क्या इससे उन विधालयों में जहाँ हिंदी बोलने पर दंड है , अगले वर्ष, प्रवेश के लिए लगने वाली कतारों में कोई कमी होगी ?
भाषा, व्यक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम है जिसके तार सीधे उसकी हृदय की संवेदना से जुड़े हैं। ऐसा क्यों है, कि आज अग्रेजी के शब्द का गलत उच्चारण करने का पता चलने पर तो शर्म का अनुभव होता है, मगर हिंदी के अज्ञान को सिर्फ "व्हाटएवर " के साथ कंधे उचकाकर झटक दिया जाता है। हिंदी न आना , या न जानने का स्वांग करना बहुत से भारतीयों के लिए गर्व का विषय रहा है। २०० साल की गुलामी के बाद "कोलोनियलिस्म " की जो काई अंतर्मन पर जमी है , उसे हटाने के वैद्य कारण हमें नजर नहीं आते , अंग्रजियत हमारे लिए आज भी सम्मानीय है।
हिंदी विश्व में संख्या के आधार बोले जाने वाली दूसरी प्रचलित भाषा है , मगर फिर भी हिंदी साहित्य में मौलिक योगदान करने वालों का कोई नाम भी नहीं जानता , हिंदी में छपने वाले समाचार पत्र भी अंग्रेजी में लिखे लेखों का अनुवाद कर अपना काम चला रहे हैं अंग्रेजी में लिखा कचरा भी मूल्यवान है और हिंदी में लिखा श्रेष्ठ आलेख भी आज पाठक नहीं पाता। हम पीड़ी दर पीड़ी अपनी भाषा से दूर गएँ हैं , क्या ये विडंबना नहीं की देश की जनता ने दिनकर और प्रेमचंद के नाम तो शायद पाठ्यक्रम में पड़े हों , हम में से ९५% ने न दुष्यंत कुमार का नाम सुना होगा और न फणीश्वरनाथ रेणु का , अगर हिंदी के प्रसार में सच में किसी ने योगदान दिया है तो वह है हिंदी गीत- संगीत।
स्वंत्रता के बाद से जिस तरह हिंदी को कठिन बनाने की कोशिश की गयी उस से हानि अधिक हुई , आकाशवाणी पर जब तक सिर्फ शास्त्रीय और सुगम संगीत बजता रहा तब तक उसे लोकप्रियता नहीं मिली , पंडित नरेंद्र शर्मा ने जब सरकारी फीताशाहों को ये समझाया की जब तक आप जनता की मांग नहीं समझेंगे जनता आपसे नहीं जुड़ेगी . कोई भी संगीत अछूत नहीं ये समझ आने पर ही कहीं फ़िल्मी गीत रेडियो पर विविध भारती से बजना शुरू हुए , और उन गीतों ने कैसे भारत को उत्तर से दक्षिण तक जोड़ा इसे किसी प्रमाण की जरुरत नहीं। ये सोच का विषय है कि साहित्य ऐसा क्यों नहीं कर पाया, क्योंकि शायद ये अपने आप को व्याकरण के बंधन से आज़ाद नहीं कर पाया। कैसे कहा जा रहा, इस से ज्यादा आवश्यक है की क्या कहा जा रहा है , उसे रोचक और वृहद बनाये जाने के प्रयोगों में कहीं कमी रही।
अंग्रेजी में विज्ञानं और साहित्य का अपूर भंडार उपलप्ध है , अंग्रेजी ने सब से लिया है , लैटिन से, ग्रीक से , उन्हें किसी भी भाषा के प्रचलित शब्द जोड़ने में कोई परहेज नहीं रहा। उन्होंने हमसे 'कच्चा' भी लिया और 'पंडित' भी और तमिल से 'केटामरीन' भी , मगर हम अपनी ऊर्जा को , अपनी भाषा को व्यापक और प्रचुर बनाने की जगह, उसकी महानता का गुणगान करने में या अंग्रेजी का विरोध करने में ही लगाते रहे।जरुरत है हिंदी को सिंहासन से उतारकर आम आदमी के बीच लाने की।हवाई अड्डे को , विमान उतनपटन स्थल और ट्रेन को लोपथगामनी कहे जाने की जिद कर, आप हिंदी भाषा का विकास नहीं, उसे संस्कृत की तरह विलुप्त होने की राह पर ले जा रहे हैं. भाषाएँ एक दुसरे के प्रतिद्वंद्वी बनाये जाने की जगह एक दुसरे की पूरक बने। मुद्दा तो आज मूल मौलिक विचार का है, भाषा तो सिर्फ माध्यम है प्रकर्ति की तरह सक्षम और फैलाव लिए , बकौल शायर
वो तो खुशबु है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला तो फूल का है फूल किधर जायेगा
वो तो खुशबु है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला तो फूल का है फूल किधर जायेगा
मेरे विचार में , हिंदी दिवस जैसे प्रतीकात्मक आयोजन करने से कहीं बेहतर है अच्छे पुस्तकालयों का निर्माण किया जाये , जहाँ अच्छी पुस्तकें व पत्रिकाएं उपलप्ध हों। जरुरत है इंटरनेट , सोशल मीडिया, मोबाइल पर हिंदी में आसानी से टाइप करने वाले सॉफ्टवेयर को बढ़ावा देने की। जीवन में ज्यादातर चीजें अनुभव से ही सीखी जा सकती हैं और अनुभव स्वयं करने व जुड़ने से मिलता है , उसे सुन- देख कर प्राप्त नहीं किया जा सकता। जरुरत है ऐसे सार्थक प्रयोगों की जिस से हिंदी भाषा भारतीयों की जिंदगी का हिस्सा बने , बिना दबाव के, बिना लालच के ,सिर्फ उसकी समृद्धता एवं सुंदरता के कारण।
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