Monday, October 13, 2014

बातें 'सत्यकाम' की


कुछ कहानियाँ , कुछ कविताएँ , कुछ गीत , हमारे भीतर कभी ख़त्म नहीं होते। वो जैसे हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं , कभी प्रेरणा बन कर , कभी कोई याद बन कर , और , कभी चाह कर भी,  कुछ न कर पाने की व्यथा से जनित पीड़ा बन कर।

1969 में ऋषिकेश मुख़र्जी ने नैतिकता , ईमानदारी और सच्चाई को आधार बनाकर इस ख़ूबसूरत फ़िल्म सत्यकाम की रचना की थी। फिल्म में आदर्शवाद के दुर्गम राहों की तकलीफो का जिक्र भी था और व्यहारिकता की पतली गलियों की फिसलती  ढलानों पर एक तंज़ भी। ये कृति एक सवेंदनशील हृदय के लिए गहन सोच का सामान थी। आश्चर्य की बात नहीं कि  नैतिकता और सच्चाई  का ढोल पीटने वाले हमारे समाज ने इस फ़िल्म को ठीक से देखने की कोशिश तक नहीं की , नतीज़न  फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही।

संजीव कुमार यानी नरेन सूत्राधार हैं  पूरी कहानी के , जो केंद्रित है उनके मित्र सत्यप्रिय आचार्य यानी धर्मेन्द्र पर, जिसका सत्य के प्रति समर्पण और आचरण की शुद्धता दीवानगी की हद तक है। यह एक ऐसे इंजीनियर की कहानी है जो भ्रष्ट सिस्टम को दोष देकर अपनी जिमेदारी से मुक्त नहीं होना चाहता . यह दास्ताँ एक ऐसे अधिकारी की, जो नौकरी से इस अहसास से त्यागपत्र दे देता है कि जब वो अपने मातहतों को न्याय नहीं दिला सकता, तो उन्हें सजा देने का भी उसे कोई हक़ नहीं।

व्यहारिकता के नाम पर भ्रष्टाचार की जड़ें सींचने वाले इस समाज में जिस तरह आज भी एक ईमानदार आदमी को मूर्ख और अड़ियल घोषित कर , तबादलों की यातना देकर या फिर अंत में गोलियों की बौछार से शांत किया जाता है, वही हश्र इस सत्यप्रिय आचार्य का भी फ़िल्म में होता है। वह सच्चाई के लिए लड़ते-भिड़ते आख़िर कैंसर का शिकार हो जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शायद कथा लेखक कहना चाहते थे कि भ्रष्टाचार बहुत बड़ा कैंसर है जो इंसानी ईमान को या फिर इंसान को ही खा जाता है। फिल्म के प्रदर्शन  के बाद जब एक पत्रकार ने ऋषिदा से पुछा की उन्होंने आखिर में सत्यप्रिय को मार क्यों दिया ? उनका जवाब था " क्या आपको लगता है आज के समाज में सत्यप्रिय जैसे लोग जीवित रह सकते हैं ? इस उत्तर से उठे सवाल का जवाब तो आज ४४ साल बाद भी हम नहीं ढूंढ पाएं है.

फ़िल्म का प्रारम्भ और और अंत सत्य की गूढ़ परिभाषा से ही होता है , फिल्म की शुरुआत इस पौराणिक कहानी से होती है।
"सत्यकाम ने गुरु गौतम के पास जाकर कहा : भगवन मुझे अपना शिष्य बनाइए।
गुरु गौतम ने पूछा : तुम्हारा गोत्र क्या है ?
सत्यकाम ने कहा : मां से मैंने पूछा था। मां ने कहा बहुतों की सेवा करके तुम्हें पाया। इसलिए तुम्हारे पिता का नाम मैं नहीं जानती। लेकिन मेरा नाम जबाला है इसलिए तुम्हारा नाम जबाल सत्यकाम है। यही कह।
ऋषि गौतम ने सत्यकाम का सिर चूमकर कहा : तुम्ही श्रेष्ठ ब्राह्मण हो। क्योंकि तुममें सत्य बोलने का साहस है।"

फ़िल्म के अंत में सत्यप्रिय की मृत्यु के बाद दादा (अशोक कुमार) जिसने सत्यप्रिय के विवाह और उसकी पत्नी रंजना के बच्चे को कभी स्वीकार नहीं किया, वह आख़िर में सच की शक्ति के आगे नतमस्तक हो जाते है। क्योंकि वह बच्चा सार्वजनिक रूप से सामने आकर उनसे कहता है कि वे उसे पिता के संस्कार कर्म से इसलिए दूर रखना चाहते हैं क्योंकि वह उनके पोते का बेटा नहीं है। हैरतज़दा दादाजी अपने भगवा वस्त्रों और लहराती सफ़ेद दाढ़ी में बेचैन होते हुए पूछते हैं कि आख़िर इतने छोटे-से बच्चे को इतना कड़वा सच किसने बताया। बालक कहता है "माँ ने ". सच है , हर युग में मां जबाला और सत्यकाम तो होते ही रहेंगे फिर चाहे दुनिया भले ही उनको उनके सत्य रूप में पहचान पाए कि न पहचान पाए।

पटकथा के साथ इस फिल्म का एक और मजबूत पहलू है, श्री राजेंद्र सिंह बेदी के संजीदा संवाद। ऐसा लगता है, मानो किसी ने हमारे समाज को बेबाकी से सरे बाजार ला दिया है, हिसाब मांगने के लिए । गौर करिये मंत्री के लिखित शिकायत देने की हिदायत पर सत्यप्रिय कहते है "सर , वो लोग क्या लिखकर रिश्वत लेते हैं जो मैं आपको उनके नाम लिखकर दूँ ? कुछ संवाद आपको विश्वास भी दिलाते है कि इंसान अभी भी भरोसे के क़ाबिल हो सकता है जब मत्रीजी घर आ कर कहते है " बेटा , तुम ज़िन्दगी में बहुत दुःख देखोगे , बहुत कुछ सहना पड़ेगा मगर तुम्हारा ये दुःख और दर्द ही हमारी उम्मीद है , जिस पर आने वाली पीड़ी की नीवं रखी जाएगी।  कुछ पैगाम भी दिया है हम सब के लिए बेदीजी  ने ऐसे संवादों में  "मैं इंसान हूं। भगवान की सबसे बड़ी सृष्टि। मैं उसका प्रतिनिधि हूं। किसी अन्याय के साथ कभी सुलह नहीं करूंगा। कभी नहीं करूंगा’।

इस फिल्म को देखकर व्यथित हो जाता हूं, मगर फिर भी इसके अंशों को बार बार देखा है।  इस उम्मीद में कि  जितना कुछ अंदर बच पाया है, कम से कम वही बचा रह जाए। परदे पर ही सही, ऐसे चरित्रों  को देख कर सम्बल और विश्वास  मिलता है कि , इंसान का जीवन यक़ीनन उस बेहूदगी, उस बेचारगी , को पार करने में है, जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है । जो जैसा है, जहां है,  को स्वीकार करने वालों के बहुमत वाली, व्यहारिकता के नश्तरों से, अपनी सुविधा से और अपनी सुविधानुसार सच की कांट छांट  करने वाली, इस स्याह  दुनिया में उन्हीं लोगों की मौजूदगी से उजाला है  जिनके लिए जीवन अपने आदर्शो को जीवित रखने का संघर्ष है। जो लोग  न्याय और अन्याय को बारीकी से पहचानते हैं और न्याय के पक्ष में निर्भीक होकर सच बोल सकते हैं। फिल्म में , सत्यप्रिय के बारे में एक जगह नरेन् का कथन है ‘ऐसा लगता था मानो उसका झगड़ा दुनिया से ही नहीं, ख़ुद से भी है।’ सच है,  और ये भी सच है कि यह सच, सच  की संवेदना और मायने  समझने वाले इंसानो, को ही समझ में आ सकता  है।
महान साहित्यकार गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ का कथन है  " मनुष्य सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बार उस रोज़ जन्म नहीं लेते जब उनकी माताएं उन्हें पैदा करती हैं,जीवन बार बार उन पर अहसान करता है, कि वे स्वयं को जन्म दें "।हम में से गिने चुने ही  इन अवसरों का उपयोग कर पाते  हैं , और , वो हमेशा जीवित रहते हैं , दूसरों के ख़्वाबों और जज्बों में अपने जीवन से ये पैग़ाम देते हुए
माना की इस चमन को न गुलज़ार कर सके
कुछ खार तो कम कर गए गुज़रे जिधर से हम।  

अगर समय न हो तो मेरे द्वारा upload किया गया  एक अंश देख सकते हैं, यहाँ क्लिक कर के .......

1 comment:

  1. Dear sir,
    Thanks, but I do not write for revenue , I do work for that .By the way, it is not fair to paste offers and deals at every place .I will sum up my feelings about your comment by quotimg lines of Shri Dushyant Kumar in simple Hindi
    दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
    तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।
    ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
    यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।

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