Sunday, October 25, 2009

"साहिर "

25 अक्टूबर 1980 वो तारीख थी जब इस देश के एक अजीम शायर ने अपने जीवन  की आखिरी साँसे ली , साहिर लुधियानवी  के नाम को किसी के परिचय की जरूरत नहीं  ।
कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे  मगर शायद कई लोग इस हकीकत  से वाकिफ नहीं होंगे ,कि  लुधियाना के जिस  कॉलेज से  साहिर को  प्रिंसिपल ऑफिस के लॉन में एक महिला मित्र के साथ बैठने पर निकाल दिया गया था उसी  कॉलेज ने  उन्हें ख्याति मिलने के बाद समानित किया  । शायद यही जीवन है जहाँ चदते हुए सूरज की पूजा होती है , और मरने के बाद सैनिको को शहीद कहके सलाम किया जाता है । साहिर की  प्रतिभा शायद इन्ही अनुभवों से गुजर कर  तल्खियाँ  के रूप में सामने आई । 'तल्खियाँ' यानि कड़वाहट , और  जीवन के तल्ख़ अनुभव तो  बचपन से ही उनके साथ रहे  ,उन तल्खियों के साये उनके  शेरों में साफ़ दिखाई देते हैं ।  इसी लिए वो लिखते हैं
मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है
मगर ऐ काश! देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को
मैं जब तारों पे नज़रें गाड़कर आसूँ बहाता हूँ
तसव्वुर बनके भूली वारदातें याद आती हैं
तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्दत से पहरों तिलमिलाता हूँ
मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत के नज़्ज़ारों से उल्फ़त है
मेरा दिल दुश्मन-ए-नग़्मा-सराई हो नहीं सकता
मुझे इन्सानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने
मेरा मक़सद फ़क़त शोला नवाई हो नहीं सकता
जवाँ हूँ मैं जवानी लग़्ज़िशों का एक तूफ़ाँ है
मेरी बातों में रंगे-ए-पारसाई हो नहीं सकता
मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूँ भूख  के मारे किसानों को
ग़रीबों को, मुफ़्लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को
सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को
किसी के चिथडों को और शंशाही खाज्नाओं को 
तो दिल ताबे-इ-निशाते बज्मे इशरत हो नहीं सकता 
मैं चाहूं   भी तो ख्वाब और तराने गा नहीं सकता  

ऐसी सोच सिर्फ ऐसा इंसान रख सकता था जिसका मजहब  इंसानियत हो और जिससे इस बात का एहसास हो की सरहद के उस पर रहने वाले इंसानों का  खून भी उसी रंग का जैसा की हमारा है। 
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

क्रांति उनकी फितरत में थी जो उनकी हर रचना में नुमाया होती है , ताजमहल की तारीफ में तो कई कवियों और रचनाकारों ने बहुत लिखा मगर सिर्फ  साहिर की नज़र ने  देखा की एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर गरीबों की मोहब्बत का मजाक उडाया है  , वो लिखते हैं 

मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उलफत भरी रूहों का सफर क्या मानी
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिये तश्शीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह गरीब  थे
साहिर  को हमारी पीड़ी सिर्फ उनके फ़िल्मी गीतों की वज़ह से जानती है, इसमें कोई शक नहीं के उन्होंने बहुत खूबसूरत गीत लिखे मगर उनके शब्दों में "फिल्म मैं गीत लिखना क्या बड़ी बात है एक सिगरेट जलालकर उसके दस कश लेता हूँ तो एक गीत बन जाता है. मेरे एक कश की कीमत एक हज़ार रुपये है.
ऐसे  लोग बार बार नहीं आते , कितने दुःख की बात है की आज २४ घन्टे संगीत  बजाने वाले किसी FM   चैनल में साहिर को श्रदांजलि देने को दो मिनट नहीं है ,शायद साहिर को तीस साल पहले इसका एहसास होगा जब उन्हाने लिखा
कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥
आये तो बहुत हैं, मगर बेहतर तो होना शायद मुमकिन नहीं ,कवि वही कहता  है जो वो देखता और महसूस करता है ,बाज़ार महसूस नहीं करता और  अब सिर्फ बाज़ार का महत्व है और  बाजारों   में भावनाओं    का मूल्य शायद कुछ  भी  नहीं , साहिर के बारे में बस यही कहा जा सकता है
हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है,
एक तू ही नहीं है
नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं
ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं
कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं है
हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है
हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है
तू चाहे कहीं भी हो, तेरा दर्द यहीं है
हसरत नहीं, अरमान नहीं, आस नहीं है
यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है
यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है.

5 comments:

  1. ek behtarin aur namcheen shayar ko meri shraddhanjali

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  2. बहुत बढिया शैली पसंद आई,आगे भी लिखे,
    आप का स्वागत करते हुए मैं बहुत ही गौरवान्वित हूँ कि आपने ब्लॉग जगत में पदार्पण किया है. आप ब्लॉग जगत को अपने सार्थक लेखन कार्य से आलोकित करेंगे. इसी आशा के साथ आपको बधाई.
    ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं,
    http://lalitdotcom.blogspot.com

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  3. सुंदर और भावपूर्ण आलेख के लिए बधाई स्वीकारे.

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  4. आपकी प्रतिक्रिया के लिए सादर धन्यवाद

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  5. EXCELLENT, NO WORDS FOR APPRICIATION

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