Wednesday, August 14, 2013

तुम भूल न जाओ उनको।

 भारत को स्वतंत्र हुए  आज ६७  साल  हुए। क्या इसी आज़ादी को पाने के लिए न जाने कितने सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी ? शहीद बिस्मिल की ये एक पुरानी कविता जो एक पैगाम भी है ,  शिकवा भी है और हम सब से सवाल भी है उन  शहीदों का क्या इसी सुबह के लिए , उन्होंने हमेशा के अँधेरे स्वीकारे थे ?

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल* उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !
* छोटे बच्चे

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रखा  था ,मेहन रक्खी थी , गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी , और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ये  ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

फिर न गुलशन में हमें लायेगा सैयाद कभी
याद आएगा ना किस्साये  दिल ए नाशाद कभी
क्यों सुनेगा तू हमारी कोई फ़रियाद कभी
हम भी इस बाग़ में थे ,कैद से आजाद कभी
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को

न मयस्सर हुआ रहत से कभी मेल हमें
जान पर खेल के भाए,  न कोई खेल हमें
एक दिन का भी न मंजूर हुआ'बेल' हमें
याद आएगा 'अलीपुर' का बहुत जेल हमें
लोग तो भूल गए होंगे उस अफ़साने को 

मैकदा किसका है ये जामे सुबू किसका है
वार किसका है जवानो ये गुलू किसका है
जो बहे कौम की खातिर वो लहू किसका है
आसमान साफ़ बता दे तू अदू किसका है
क्यों नए रंग बदलता है तू तडपाने को

दर्दमंदो से मुसीबत की हलावत पूछो
मरने वालों से जरा लुत्फे - शहादत पूछो
चश्मे गुस्ताख से कुछ दीद की हसरत पूछो
कुश्ताये नाज़ से ठोकर की क़यामत पूछो
सोज़ कहते हैं किसे पूछ लो परवाने को 

बात तो जब है की इस बात की जिद्दें ठाने
देश के वास्ते कुर्बान करें हम जाने
लाख समझाए कोई उसकी न हरगिज़ माने
"के बहते हुए खून में अपना न गरेबान साने"
नसीहा , आग लगे इस तेरे समझाने को

अब तो हम डाल चुके अपने गले में झोली
एक होती है फकीरों की हमेशा बोली
खून में फाग रचाएगी हमारी टोली
जब से बंगाल में खेले हैं कनैह्या होली
कोई उस दिन से नहीं पूछता बरसाने को

दिल फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

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