Tuesday, January 20, 2015

" हिंदी में अन्य भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग का प्रचलन हिंदी के लिए आशीर्वाद है या अभिशाप है " ?


भाषा, व्यक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम है, जिसके तार, सीधे उसकी हृदय की संवेदना से जुड़े हैं। इस से पहले कि हम मूल प्रश्न  का उत्तर निर्धारित करने की चेष्टा करें , हमें इस से जुड़े कुछ आधारभूत पक्षों  की विवेचना कर लेनी चाहिए । 
भाषा क्या है ? भाषा की आवश्यकता क्यों है ? बोलियों से विभाषा और विभाषाओं से भाषाएँ किस तरह विकसित होती हैं ? क्यों कुछ भाषाएँ समय के साथ प्रचलित रहती हैं और क्यों कुछ अप्रासंगिक और विलुप्त होकर सिर्फ ऐतिहासिक महत्त्व की रह जाती हैं ? 
भाषा वह साधन है जिसके द्वारा किसी समूह या क्षेत्र के लोग अपने मन की बात तथा विचार व्यक्त करते है और इसके लिये वे न सिर्फ नाद ध्वनियों का बल्कि ऐच्छिक संकेतो का भी उपयोग करते है, जिनका किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध आवश्यक नहीं होता । भाषा सिर्फ ध्वनि प्रकृति न रखकर भाव प्रकर्ति  भी रखती है जो शब्द निर्माण और व्याकरण में मुखरित होती है। भाषा कोई ईश्वरीय देन नहीं बल्कि इसे मनुष्य ने  अपनी बुद्धि से, अभिव्यक्ति के सुगम तरीके के लिए विकसित किया है जो मनुष्य की प्रगर्ति  में सहायक रही है। हमारी हिंदी , भाषाविज्ञान की द्रष्टि  से भाषाओं के आर्य वर्ग की उपशाखा भारत-ईरानी समूह से है ,जो मूलतः  संस्कृत की वंशजा मानी गयी है और मध्यकालीन आर्यभाषाओं के अलावा द्रविड़, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली, तथा अंग्रेज़ी भाषाओं के वैविध्य से समृद्ध और व्यापक हुई है। 
मूल विषय पर आयें  , तो हम  खुद को दो पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं के वर्गों के बीच खड़ा नज़र पाते हैं। पहला वर्ग वो, जिसे अग्रेजी या फ्रेंच शब्द के  गलत उच्चारण करने का पता चलने पर तो शर्म का अनुभव होता है, मगर हिंदी के अज्ञान को वह सिर्फ "व्हाटएवर " के साथ कंधे उचकाकर झटक देता है।  गोया , सदियों की गुलामी के बाद "कोलोनियलिस्म " की जो काई अंतर्मन पर जमी है , उसे हटाने के कोई  वैध्य कारण उन्हें नजर नहीं आते। दूसरा वर्ग वो है जो मौलिकता  बनाये रखने के नाम पर हवाई अड्डे को , विमान उत्तनपटन स्थल और ट्रेन को लौहपथगामिनी  कहे जाने की जिद में है। विडम्बना ये भी है कि जो लोग आज हिंदी की शुद्धता बनाये रखने की गुहार लगाते हैं , उनमे से ही कई अपने बच्चों को ऐसे  विद्यालयों  में प्रवेश दिलवाने के लिए लगी कतारों में नज़र आते हैं , जहाँ हिंदी बोलने पर ही  दंड है । 
जिस समाज में हम रहते हैं उसकी भाषा का असर ,साहित्य पर ,फिल्मों पर ,गीत संगीत पर आना स्वाभाविक है क्योंकि रचनाकार भी उसी समाज का हिस्सा है जिसे वो सम्बोन्धित करना चाहता है ।  दूसरी भाषा से प्रचलित शब्द जो वैसे भी हमारी आम ज़िन्दगी में जगह बना चुके हैं व  जिनसे व्याकरण , कर्ता ,  कारक और क्रिया  का क्रम  प्रभावित न होता हो, जोड़ने में हर्ज़ क्या है ? मेरे विचार में, अगर हिंदी के प्रसार में सच में किसी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो वह है हिंदी गीत- संगीत। गौर कीजिए  , आकाशवाणी पर जब तक सिर्फ शास्त्रीय और सुगम संगीत बजता रहा तब तक उसे लोकप्रियता नहीं मिली। पंडित नरेंद्र शर्मा ने जब सरकारी फीताशाहों को ये समझाया  की कोई भी संगीत अछूत नहीं और  जनता से जुड़ने के लिए उसकी मांग समझना जरुरी है।  तब कहीं  फ़िल्मी गीत रेडियो पर विविध भारती से बजना शुरू हुए , और उन गीतों ने कैसे भारत को उत्तर से दक्षिण तक जोड़ा इस तथ्य को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं। ये सोच का विषय है कि साहित्य ऐसा क्यों नहीं कर पाया, क्योंकि शायद ये अपने आप को भाषाई  जंजीरों की लम्बाई से आगे नहीं बढ़ा पाया। कैसे कहा जा रहा है , इस से ज्यादा आवश्यक है जानना  कि जो कहा  जा रहा है क्या वो रोचक और उपयोगी   है ? क्या कोई , उसे सुन और समझ भी रहा है  या स्थिति बस खुद दिल से दिल की  बात कहकर,  रोने जैसी है ? 
कुछ जोड़ने से कुछ घटता नहीं , आज अंग्रेजी में विज्ञानं और साहित्य का अपूर भंडार उपलब्ध  है , अंग्रेजी ने सब से लिया है- लैटिन से, ग्रीक से , उन्हें किसी भी भाषा के प्रचलित शब्द जोड़ने में कोई परहेज नहीं रहा। उन्होंने हमसे 'कच्चा' भी लिया और 'पंडित' भी और तमिल से 'केटामरीन' भी। अगर हम अपनी ऊर्जा को , अपनी भाषा को व्यापक और प्रचुर बनाने की जगह, सिर्फ उसकी महानता का गुणगान करने में और उसे व्यहारिकता के धूप  के बिना बस संस्कारों के पानी से सींचेंगे तो मेरा मानना है की हम हिंदी को  विकास-पथ पर  नहीं अपितु  संस्कृत की तरह विलुप्त होने की राह पर ले जा रहे हैं। 
जीवन का पर्याय गति है और यह श्लोक "जीवने केवलं परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति" जो जीवन व उस से जुडी गतिशीलता का घोतक  है ,  हमें समझाता है कि केवल परिवतर्न ही चिर स्थायी है । संसार की सभी बातों की भाँति भाषा  भी  मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से ,खड़ी  बोली और फिर आज की मिर्श्रित भाषा  तक बदलती रही है ।  मेरा मानना है की मुद्दा आज भाषा का नहीं , मूल मौलिक विचार का है, भाषा तो सिर्फ माध्यम है, प्रकर्ति की तरह सक्षम और फैलाव लिए , बकौल शायरा परवीन शाकिर 
वो तो खुश्बू  है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला तो फूल का है, फूल किधर जायेगा
मेरे विचार में , जरुरत है हिंदी को सिंहासन से उतारकर आम आदमी के बीच लाने की। अंततः कोई बुराई नहीं उन शब्दों को  जोड़ने में जो व्यवहारिकता  में हमारे जीवन से वैसे भी हमसे जुड़ चुके हैं।  अगर हमें सचमुच हमारी भाषा को समृद्ध बनाने की मुहिम शुरू करनी है तो यह इसमें मौलिक सृजन  को बढ़ावा देकर , पुस्तकालयों  में उच्च कोटि का हिंदी साहित्य लाकर ,हिंदी में लिखने के सॉफ्टवेयर को प्रचलित कर के किया जाना होगा। साहित्यकार थॉमस मान  कहते हैं  "हर शब्द, चाहे वो कितने भी विरोध में  क्यों न कहा गया हो, जोड़ता है , ये तो ख़ामोशी है, जो दूरियां बढ़ाती है। हमें हमारी इस सुन्दर भाषा की उच्छल तरंगो  को समाज के समुद्र में फैलने देना होगा , इसे अपने ही शब्दों के किनारों में बांधने  की कोशिश ही एक अभिशाप होगी।

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